साइट विजिट हमेशा से एक उलझन भरा काम रहा, खास तौर पर वो शुरुआती दिनों में, उतना सब आता नहीं था और साइट पर मिलने वाला हर व्यक्ति अपने आड़े तिरछे सवालों से ये बात साबित करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ना चाहता था। सीमेंट सैंड का रेश्यो कितना रखना है, तराई कितने दिन तक करनी है, मानो ऐसी वाइटल इनफार्मेशन प्राप्त करने के लिए ही आर्किटेक्चर की पढाई ईजाद की गयी हो और वो बुजुर्ग ठेकेदार क्यों मौका छोड़े, साहब ये फर्श में ढाल कितना सही रहेगा, बीम में सरिये 12 एम एम के 6 बाँध दूँ और फिर वो सैडिस्टिक स्माइल, बिना कहे कह देना नया नया लड़का है ज्यादा कुछ नहीं जानता।

 

समय बदला, अब साइट पर दनदनाते हुए जाने की आदत पड़ गयी थी, वहां काम कर रहे लोगो को जहाँ एक तरफ ये डर होता था की उनकी कोई गलती ना निकल जाए साथ साथ आत्मविश्वास भी बढ़ जाता था कि अब उन्हें उनके सवालो का जवाब मिलेगा और आगे की चाल भी मिलेगी, पुराने अनुभवी ठकेदारो का सहयोग भी मिलने लगा, वो भी अब जुड़े रहना चाहते थे, हमारे काम में छोटी मोटी कमी हो तो अलग से बताकर उसे सही भी करा लेते थे। धीरे धीरे अनुभव बढ़ रहा था और सीखने सीखाने का सिलसिला जारी था पर साइट विजिट पर चैलेंजेज अब खत्म हो गए हो ऐसा नहीं था बस उनके स्वरुप बदल गए थे।

 

हर साइट पर एक न एक व्यक्ति ऐसा मिल ही जाता है जो गाडी से पैर नीचे रखते ही आपको उलझा लेना चाहता है। आप पूरी स्थिति का जायजा लेना चाहे या वहां किये हुए काम को बारीकी से निहारना चाहे, उसे उस बात से कोई लेना देना नही। बचकर निकलो तो वहां पर अक्सर कोई न कोई एक विशेष सलाहकार भी होते हैं, उनकी क्वालिफिकेशन किसी भी फील्ड में हो उस साइट की चिंता उन्हें आपसे या या आपके क्लाइंट से कहीं ज्यादा होती है, अमूमन अपनी सलाह का ये कोई चार्ज भी नहीं लेते, जरुरी नहीं कि वो क्लाइंट के रिश्तेदार या ख़ास दोस्त हों, वो कोई पडोसी या घर के पुराने ड्राइवर भी हो सकते है। और भी आये दिन ऐसा कुछ न कुछ निकल ही आता है जहाँ आपकी सोच समझ काम न करे।

 

आजकल कोरोना की उलझने भी मिलती जुलती सी लगती हैं, कितनी भी रिसर्च हो गयी हो, वैक्सीन लग गयी हो, कुछ एक लोगो की बेसब्री और अनाड़ीपन कब कौन सा चैलेंज खड़ा कर दे या ये कब कौन सा रूप बदल कर आ जाए पता नहीं, और वो मुफ्त के सलाहकार यहाँ भी कम नहीं हैं। साइट हो या कोरोना या फिर लाइफ की दूसरी छोटी बड़ी चीजें, हमारा पूर्व अनुभव या उस सब्जेक्ट की नॉलेज कई बार फेल हो जाती है। सीखने की अब नेक्स्ट स्टेज शायद ये भी है की हम गैर जरुरी चीजों को कितना इग्नोर कर पा रहे हैं और अप्रत्याशित घटनाओं को कितना संयम या सूझ बूझ से डील कर रहे हैं।

 

आपकी लाइफ में, बिज़नेस में या कैरियर में जब ऐसा कुछ होता है जिसका आप को पूर्व अनुभव न हो या जहाँ आपका बस न चले तो आप उस सिचुएशन को कैसे विन करते हैं बताइएगा जरूर…आपका शुभचिंतक

 

“संदीप जैन”

वर्ष 1995, आई आई टी खड़गपुर से आर्किटेक्चर की डिग्री लेने के बाद ढेड़ साल दिल्ली में एक जॉब की और अपने होम टाउन मेरठ में अपनी प्रैक्टिस शुरू करे भी कुछ समय हो गया था। इंटीरियर प्रोजेक्ट्स में रुझान ज़्यादा था, थोड़ा बहुत आर्किटेक्चर के मिले जुले काम भी कर रहा था। आसान नहीं था, एक तो लोगों को उतनी अवेयरनेस नहीं थी और पहले से जमे हुए क्वालिफाइड और नॉन क्वालिफाइड लोगों से कम्पटीशन भी था । उतनी फीस भी नहीं मिलती थी और खर्चे चलाने के लिए कई- कई काम भी पकड़ने पड़ते थे, आये दिन झुंझलाहट होती थी।

 

एक क्लाइंट के साथ बैठा था, चित्रा प्रकाशन वाले अजय भाईसाहब को अपने दुखड़े सुना रहा था, इतनी पढ़ाई की, ड्राइंग डिटेलिंग में इतनी मेहनत करते हैं, कई- कई ऑप्शन्स देना और बहुत से लोग तो सिर्फ एक नक्शा बनाकर, दीवारों पर कुछ स्केच खींच कर या सिर्फ कुछ किताबों के फोटो दिखाकर पूरा प्रोजेक्ट निकाल देते हैं। कैसे पार बसेगी इनसे। अजय भाईसाहब ने बड़े प्यार से समझाया था संदीप जी आप इस कमरे में कोई बदबूदार चीज़ रख दें तो सबको तुरंत पता चल जाएगा और आप कोई महंगा परफ्यूम लगा के आएं तो किसी को समझ आएगा किसी को नहीं , खुशबू देर से फैलती हैं। सही बोला था उन्होंने थोड़ा समय लगा था अपनी पहचान बनाने में, पर फिर मुड़ कर नहीं देखना पड़ा।

 

यंग आर्किटेक्ट्स, मार्किट के उतार चढ़ाव या दिक्कतों से बिलकुल न घबराएं, आप मान के चलिए असाधारण फील्ड हैं। असीमित संभावनाएं हैं, मेहनत भी थोड़ी असाधारण है, एक बार सफलता चख ली तो सारे मलाल दूर हो जाएंगे। चैलेंजेज हर फील्ड में हैं और समय के साथ अदलते बदलते रहेंगे। एक चीज़ जो अभी तक नहीं बदली है वो है हमारे प्रोफेशन और ‘आर्किटेक्ट’ टाइटल से जुड़ा सम्मान, इसकी मर्यादा रखनी सीखनी होगी। और फिर सफलता कम मिले या ज़्यादा निरंतर एक बेहतर इंसान बनने की दिशा में प्रयास करना होगा। सिर्फ अपने और अपने रोज़गार के बार में सोचने से सम्मान नहीं मिलता, सोचिये अपनी स्किल्स से कैसे सोसाइटी को कंट्रीब्यूट कर सकते हैं…

 

और भी बहुत सारी बातें हैं, फिर कभी बताऊंगा आपका शुभ चिंतक

 

“संदीप जैन”

ताजमहल तीन बार देखा, पहली बार जब बहुत छोटे थे, ज़्यादा कुछ तो याद नहीं बस इतना ध्यान है कि दोपहरी में सफेद पत्थर पर पैर जल रहे थे, दूसरी बार कॉलेज के आर्किटेक्चरल टूर पर, उस समय भी सारा ध्यान इसी बात में लगा हुआ था कि ये काम निपटे तो खाने पीने की कोई सही जगह तलाशी जाए।

 

और तीसरी बार अभी तीन चार साल पहले, अपने बच्चों को ताजमहल दिखाने ले गए, पार्किंग के बाद थोड़े घुमावदार रास्तों से होते हुए एक बड़े से दरवाज़े के बीच जब ताजमहल के प्रथम दर्शन हुए तो मानो सांसे थाम गई हों… ताजमहल तो वही था, देखने की समझ शायद अब आयी थी।

 

ज़िन्दगी भी खूबसूरत है, बस देखने की समझ आ जाए…

 

*संदीप जैन*

बचपन में हमारे घर के ठीक सामने अम्मा का घर था। अम्मा के बच्चे दूरदराज शहरों में सैटल्ड थे, कभी कभार मिलने आते थे पर ज़्यादातर अम्मा अकेली ही रहती थी। दिल की बहुत अच्छी थी, दुख तकलीफ में हमेशा खड़ी रहती थी, आए दिन कुछ न कुछ खाने के लिए भी बना लाती थी। बस एक दिक्कत थी, घर के दरवाज़े आमने सामने होने के कारण एक एक चीज पर नजर रखती थी कौन आया कौन गया, बाहर ठेले वाले से कौन सी सब्जी खरीदी, वगैरह वगैरह और जब सामने पड़ती तो पूछ भी लेती वो कौन था, कल क्या खास बात थी तुम्हारे यहां। अक्सर अटपटा लगता था, अब हर समय अपने घर का दरवाज़ा भी बंद करके नहीं बैठ सकते थे, हमें भी गली का आर जार, रौनक अच्छी लगती थी।

 

बचपन से अब तक बहुत सारी चीज़े सीखी, कुछ पढ़ कर कुछ लोगों को देख कर, जैसे किसी के नाम की चिट्ठी या लिफाफा अगर खुला भी हो तो पढ़ना नहीं चाहिए, किसी के कमरे में घुसने से पहले दरवाज़ा खटखटाना या कुछ क्षणों के लिए ठहर जाना, भले ही दरवाज़ा खुला हो, कोई अपने लैपटॉप या कम्प्यूटर में अपना पासवर्ड टाइप कर था हो तो बिना उसके कहे मुंह दूसरी तरफ फेर लेना, आप के साथ बैठा व्यक्ति अगर फोन पर कोई पर्सनल बात कर रहा है तो इधर उधर हो लेना, वो शिष्टाचार वश आपको अपने पास बैठे रहने के लिए कह भी दे तो अगर जरुरी न हो, उसकी फोन पर हो रही बातों का ज़िक्र न करना।

 

सामने वाली अम्मा का कंसर्न समझ आता था पर उनकी तांक झांक या टोका टोकी पसंद नहीं थी और अब इस सोशल मीडिया के दौर में जब सबके घरों के दरवाज़े खुले पड़े हों तो अपनी सीमा तय करना तो बहुत ही मुश्किल काम है। हो सकता है हम पुराने लोगों की आदतें पक चुकी है या हम कुछ ज़्यादा ही बेतकल्लुफ़ हो गए हैं, पर नयी पीढ़ी को सीखना होगा कि हम लोगों की प्राइवेसी के लिए कॉन्शियस रहें और उसका सम्मान करें, सोसायटी में एक दूसरे के साथ रहना आसान होगा। और एक बात पक्की है आपके कैरियर में आपकी डिग्री और पढ़ाई से ज़्यादा काम आएगा आपका लोगों के साथ व्यवहार और सोशल एटिकेटस…

 

और भी बहुत सारी बातें है फिर कभी बताऊंगा, जुड़े रहिए… आपका शुभ चिंतक

 

“संदीप जैन”

 

(If you have something nice to add to this topic, please share with me, I will be happy to include the same in my blog, with due credentials)

Life is full of good things and joyous moments but we tend to miss the pleasure of so many things due to our ignorance. All we need is to learn the art of relishing them, it could be self realization or you may get a guide. Ar. Sandeep Jain is sharing a very inspiring incident of his life…

 

An awakening call for all those who have been working without any clear objective. When we our putting all our efforts  in earning good wages and attractive perks and there is no constructive vision, it is frightening. Ar. Sandeep Jain is trying to take a dig on this mindset…

 

Nobody likes to hear negative comments or scolding by their seniors. The interesting part is when you are over conscious about not making mistakes you make more mistakes, eventually you keep shying away from taking responsibilities. Ar. Sandeep Jain is trying to explain this phenomenon to his son and other young ones.

 

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